छोड़कर घर-गाँव आए
इस नगर में।
खनक सिक्कों की हमें
है खींच लाई
और कुछ देता नहीं
है अब दिखाई
लग रहा अपना न कोई
इस नगर में।
समय ने ऐसे दिए हैं
फेंक पासे
भागते दिन-रात भूखे
और प्यासे
है रचा संसार निर्मम
इस नगर में।
डोर रिश्तों की बचा
पाए कहाँ हैं
बस बिखरते ही गए
हर क्षण यहाँ हैं
जी रहे हैं सब अकेले
इस नगर में।